50+ Mirza Ghalib Shayari In Hindi | गालिब शायरी हिंदी में
दोस्तों क्या आप मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरी की तलाश कर रहे है, तो आप बिल्कुल सही जगह आये है, क्योकि आज के इस आर्टिकल में हम शेयर करने वाले है Mirza Ghalib Shayari जिसके साथ इमेज भी दिया गया है, जिससे आपको ये सभी शायरी पढ़ने में आसानी हो और इन सभी शायरी को आप अपने दोस्तों, रिश्तेदारों के साथ शेयर कर सके।
Ghalib Shayari
हाथों की लकीरों पे मत जा
ऐ गालिब नसीब उनके भी होते हैं
जिनके हाथ नहीं होते।
ज़िन्दग़ी में तो सभी प्यार किया करते हैं,
मैं तो मर कर भी मेरी जान तुझे चाहूँगा।
तेरे ज़वाहिरे तर्फ़े कुल को क्या देखें
हम औजे तले लाल-ओ-गुहर को देखते हैं।
दिल–ए–नादाँ तुझे हुआ क्या है
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है।
हुआ जब गम से यूँ बेहिश
तो गम क्या सर के कटने का
ना होता गर जुदा तन से
तो जहानु पर धरा होता।
क़सीद के आते आते खत इक
और लिख रखूं मैं जानता हूँ
जो वो लिखेंगे जवाब में।
इश्क़ ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया
वरना हम भी आदमी थे काम के।
ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं
कभी सबा को कभी नामाबर को देखते हैं।
वो चीज़ जिसके लिये हमको हो
बहिश्त अज़ीज़ सिवाए
बादा-ए-गुल्फ़ाम-ए-मुश्कबू क्या है।
ये रश्क है कि वो होता है हमसुख़न हमसे
वरना ख़ौफ़-ए-बदामोज़ी-ए-अदू क्या।
ग़ालिब छूटी शराब पर अब भी कभी कभी
पीता हूँ रोज़-ए-अब्र और शब्-ए-मेहताब में।
तुम ना आए तो क्या सहर ना हुई
हाँ मगर चैन से बसर ना हुई
मेरा नाला सुना ज़माने ने
एक तुम हो जिसे ख़बर ना हुई।
Mirza Ghalib Shayari
जान तुम पर निसार करता हूँ
मैं नहीं जानता दुआ क्या है।
कोई मेरे दिल से पूछे
तिरे तीर-ए-नीम-कश को ये ख़लिश
कहाँ से होती जो जिगर के पार होता।
हमको मालूम है जन्नत की
हक़ीक़त लेकिन दिल के खुश
रखने को ‘ग़ालिब’ ये ख़्याल अच्छा है।
दिल-ए-नादान तुझे हुआ क्या है
आखिर इस दर्द की दवा क्या है।
रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो
ग़ालिब कहते हैं अगले ज़माने
में कोई मीर भी था।
आ ही जाता वो राह पर ग़ालिब
कई दिन और भी जिए होते।
ये न थी हमारी क़िस्मत
कि विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते
यही इंतेज़ार होता।
कितना ख़ौफ होता है
शाम के अंधेरों में पूछ उन
परिंदों से जिनके घर नहीं होते।
Ghalib Shayari In Hindi
नज़र लगे ना कहीं उसके
दस्त-ओ-बाज़ू को ये लोग क्यूँ
मेरे ज़ख़्म-इ-जिगर को देखते हैं।
दर्द जब दिल में हो तो दवा कीजिए
दिल ही जब दर्द हो तो क्या कीजिए।
इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश ग़ालिब
की लगाए ना लगे और बुझाए ना बुझे।
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़
जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं
जिस काफ़िर पे दम निकले।
रही ना ताक़त-ए-गुफ़्तार
और अगर हो भी तो किस
उम्मीद पे कहिये के आरज़ू क्या है।
रोने से और इश्क़ में बेबाक हो गए
धोए गए हम इतने के बस पास हो गए।
उनके देखे से जो आ जाती है
मुँह पर रौनक वो समझते हैं
की बीमार का हाल अच्छा है।
मैं भी मुँह में जुबां रखता हूँ
काश पूछो की मुद्दा क्या है।
वो आए घर में हमारे
खुदा की क़ुदरत हैं
कभी हम उनको कभी
अपने घर को देखते हैं।
ग़ालिब बुरा ना मान जो वाइज़ बुरा कहे
ऐसा भी कोई है की सब अच्छा कहे जिसे।
मिर्जा गालिब शायरी
बना कर फ़क़ीरों का हम भेस ग़ालिब
तमाशा-ए-अहल-ए-करम देखते हैं।
कहाँ मय-ख़ाने का दरवाज़ा ग़ालिब
और कहाँ वाइज़ पर इतना जानते हैं
कल वो जाता था कि हम निकले।
दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर गई
दोनों को इक अदा में रज़ामंद कर गई।
निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं
लेकिन बहुत बे-आबरू हो कर
तिरे कूचे से हम निकले।
इशरत-ए-क़तरा है दरिया में
फ़ना हो जाना दर्द का हद से
गुज़रना है दवा हो जाना।
दर्द मिन्नत काश-ए-दवा ना हुआ
मैं ना अच्छा हुआ ना बुरा हुआ।
आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक
कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक।
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